पीपल की छाँव - सर्वजीत Peepal Ki Chaav

 

पीपल की छाँव - सर्वजीत  


बहुमंज़िलों में रह, बादलों सा हो गया 

ना आसमाँ का हुआ, ना ज़मीं का रहा 

अपने वजूद को भीड़ में खोता ही गया 

सादगी बेच, ग़रूर किश्तों में लेता गया 


इतना वीरान है, महानगर का मकाँ

कि पुरानी यादें भी यहाँ नहीं आती

कभी आया था, चंद लम्हों के लिए

उम्र बची जो है, गुज़ारी नहीं जाती 


सुख रखने की जगह कम है शहर में

ख़ुदगर्ज़ी जमा करने के बैंक काफ़ी हैं

अपनों से दूर, थी चंद रुपयों की होड़ 

सूनापन, मूक झाँकता पड़ोसी साथी है


सच है अपने कस्बे ना गए फिर कभी

लेकिन दोस्तों ने भी बुलाया नहीं दुबारा

कोई आवाज़ देकर, बुलाएगा कभी

इस उम्मीद में दिल बैठा रहा बेचारा 


जड़े रही तो पौधे में फिर प्राण आयेंगे

भटके हुए कदम, कभी तो संभल जाएँगे

रास्ते जो खो गए हैं, फिर मिल जाएँगे 

पीपल की छाँव में, एक नींद सो जाएँगे 





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