मंज़िलों का सफ़र - सर्वजीत

 मंज़िलों का सफ़र - सर्वजीत


मंज़िलों तुम चलती रहना

रास्तों की तरह

जब तुम रुक गयीं

मैं भी ठहर जाऊँगा

किसी मुक़ाम पर ग़र पहुँचा

तो शायद मैं थम जाऊँगा


सफ़र है तो सांसें हैं मेरी

सफ़र है तो हैं सपने

कभी कहीं दो पल के लिए

अपना मौसम भी छाएगा 

एक पड़ाव होगा ऐसा भी

जहाँ मुसाफ़िर बसना चाहेगा 


मंज़िलों तुम फिर भी चलती रहना 

मेरे पाँवों को चलने की आदत है

हसरत जब तक है तुम्हारी

हर सुबह में एक अँगड़ाई है

हर शाम देखती है राह अपनी

हर रात गहरी नींद आयी है 


मंज़िलों तुमसे है हस्ती अपनी

तुमसे है बेचैनी, आशा-निराशा

कभी बाहर तुम्हें, अंदर तलाशा 

तुम बदल गयी, मैं बदलता रहा 

इस खेल में जीवन ढल सा गया

सफ़र ही अपना घर बन सा गया 






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