हर रोज़- सर्वजीत
ना मिली तुम, ना मिलोगी कभी
बेबस सी आरज़ू लिए फिरता हूँ
हर रोज़ तुम्हारे बारे में सोचता हूँ
हर रोज़ तुम्हें ढूँढा करता हूँ
ना कोई रंज है, ना शिकवा तुमसे
हँसते हुए अब भी अच्छी लगती हो
दूरियों में छिपी कुछ नज़दीकियाँ
ख़्वाबों के कूचे में जब मिलती हो
सुखी हुई साख छोड़ गयी थी तुम
पत्ते और फूल बन, कभी खिलती हो
बहार आती है लेकर वीरानियाँ
आँखों की नमी में झलकती हो
शरर भर इश्क़ था तेरी आँखों में
सालों से लगी आग, अब बुझी सी हो
तुम्हें देख आती है खुद की याद
यादों के मौसम में उभरती हो
जो था फ़ितूर तेरा, ढल सा गया है
इंतज़ार आँखो में लिए फिरता हूँ
हर रोज़ तुम्हारे बारे में सोचता हूँ
हर रोज़ तुम्हें ढूँढा करता हूँ
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