अन्लॉक ज़िंदगी-सर्वजीत. Unlock Jindagi- Hindi Poem by Sarvajeet रात है उजड़ी हुई सी देखा फ़िर सपना नया है डूबी हुई सी कश्तियों में आस का दीपक जला है छोड़ गाँव,माँ,छोटी सी बिटिया ४ गज की झुग्गी में करा गुज़ारा बेरहम शहर ने फ़िर से उजाड़ा श्रमिक,ग़रीबी ही गुनाह है ख़ौफ़ में सुकून को ढूँढता घमंडी इंसान,टूटा हुआ सा डर और वाइरस के गब्बर को ललकारे,वह रहनुमा कहाँ है दूर हो रहा था मैं अपनो से मसरूफ,अब फ़ुरसत मिली क़ैद होकर सही,अपने मकाँ को फिर घर बनाना कब मना है कैसी बरसात है कि यह शोर गुल सा हो गया है दूर तक फैली खामोशी में गीत गाना कब मना है भूल गए हम गाफ़िल,भटके से प्रकृति के सिखाये फ़लसफ़े रुठी धरती माँ को मानने दबे पाँव जाना कब मना है ज़िद है डोलती कश्तियों की शिकस्त तूफ़ान की ही होगी उजड़कर फिर से बसता रहा हौसला जीने का कब मरा है रूहानियत भरे सबक़ सिखाके सिफ़र में वाइरस घुल जाएगा आज़ाद उड़ेगा पिंजरे का पंछी अन्लाक ज़िंदगी,आलम नया है
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