तुम बीच नदी, तुम ही किनारा -सर्वजीत
दीपक भी तुम, तुम ही अंधियारा
तुम बीच नदी, तुम ही किनारा
कभी अकाल, कभी बारिशों का मौसम
कभी चुभता दर्द, कभी दिल का सहारा
कुछ अपनी, कुछ माँग लिया तुमको
कोहरे की आग, जलती-बुझती हो
कभी मिली सी, कभी हो जुदा
छूकर मुझे, कहीं ओझल सी हो
कुछ बंधी हुई, कुछ उन्मुक्त पवन
पतंग सी दूर आसमाँ में रहती हो
कभी अपने, कभी बेगाने से नयन
अकेला हूँ या फिर साथ में बैठी हो
आँगन में झाँकती, तुम ठंड की धूप
सिमटी, अलग सी हो, है एहसास
गुम हो जाओगी, नहीं मिलोगी
जंगल में खोयी, किसी बस्ती की राह
क्यों ऐसा लगे जब दिल पुकारे
तुम पास जितनी, उतनी दूर हमारे
खामोशी भरे हैं सब गीत तुम्हारे
तुम गुम सी रात, तुम उजियारे
रुकी हुईं साँस, दे जीने का सहारा
आबाद है शहर, उजड़ा घर हमारा
दीपक भी तुम, तुम अंधियारा
तुम बीच नदी, तुम ही किनारा
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